Sunday, June 3, 2012

क्षितिज


                    क्षितिज


आकाश में विचारते नाभचर अनेक,
उड़ती हैं पतंगे रंगित अनेक.
विचरती उतरती दूर नभ में
क्षितिज तक...पंख पसारती,
पर बंधन है, डोर है,
नाभचर तो बे-डोर हैं
क्षितिज का रस पतंग ना जाने
एक  मृगतृष्णा - क्षितिज भी
पर पतंग भी तो मन भांति चंचल
हवा में गोते लगा छू लेती
आकाश, बादल और अस्पष्ट स्वप्न






स्वप्न चंचल मन भाँति उड़ते हैं
जैसे पतंग,
पर बँधे हैं, फिर भी उड़ रहे हैं
गोते लगा कर छू जाते
आकाश,बादल,हिमशिखर,
पर मन फिर भी अतृप्त,
अतृप्त हृदय,अतृप्त स्वप्न
अपूर्ण ढूंढता हुआ अपने क्षितिज को


क्षितिज - मृगतृष्णा
क्षितिज - आलिंगन
जीवन का और जीवन हृदय स्वपन का.













Tuesday, July 5, 2011

JAB TUM MILE -- Written upon finding a lost friend after years


भीड़ में एक दिन जब मुझे तुम मिली,
लगा यूँ की खूब मिली,
मिली मुझे - ज़िंदगी .

यूँ मिलते मिलाते, हंसते खिलखिलाते,
आया---
हवा का झोंका एक दिन
एक तूफान - साथ लाया
लगने लगा यूँ - कुछ गुमा
रेत के पहाड़ में, पत्तो के ढेर तले,
गुम गयी ज़िंदगी,
गुम गयी तुम.

चारो दिशाओं में उड़ता धुआ था,
दिखाई देता न कोई पंछी परिंदा था,
दूर शितिज भी सिकुद्ती लालिमा लिए एकाकी खड़ा था,
वृक्ष भी बिन पत्तों के अकेला ही चला था,
की आया फिर हवा का तेज़ झौका ,
आँधियारे बादल छटने लगे
धुआ भी सिमटने लगा,
दिनकर की किरणों से संसार फिर तपने लगा,
ओस की बूँदो में चेहरा एक दिखने लगा,
लगा यूँ की--
मिल गयी ज़िंदगी
मिल गयी तुम.



 

खुशीयां लौट आईं

आँगन से तेरे चली गयी जो,
धुप थी या कोई सूरत भली

आँगन से तेरे चली गयी जो,
बगिया की महक, पक्षीयों की चहक
सपनो की झलक और आँखों की चमक
आँगन से तेरे चली गयी जो,

तेरे सिंह की परछाई थी
तेरे पीछे सदा चली आई थी
आँगन से तेरे चली गयी जो

समय एक सा खबी रहता नहीं
वक़्त इंतज़ार करता नहीं
वो आँगन कभी एकाकी रह सकता नहीं
जहाँ स्नेह के मोती बिखरते सदा

धुप को आसरा मिलता है बादल का
जब चलती है पुरवाई
इन्द्रधनुष  से नभ खिलता है, जब
वर्षा में धुप खिल आई'
साँझ ढले पक्षी लौट आतें है वृक्षों पर
सागर में साहिल से मिल फिर
नदिया भी मुस्काई
आँगन से तेरे चली गयी जो
धुप थी ......... फिर लौट आई

व्यथा - एक कविता

व्यथा - एक कविता

बनी जब उत्तम एक कविता
लगी ढूँढने ------ एक श्रोता
किसको सुनाऊ , किस पर दोहराऊं
जन्म की अपनी वीर गाथा
सोच  कर यह निकल पड़ी
कवि के मन से - उन्मुक्त - एक कविता

बारिश आई बारिश आयी

बारिश आई बारिश आयी
पानी की पूरी हुई भरपाई
खेतो में फ़ासले लहलहआई
यमूनाजी ने भी ली फिर से अंगड़ाई

बारिश आई बारिश आयी
सड़को पर है जाम लगवाए
डेंगू की महामारी फेलाई
कॉमन वेल्थ की वाट लगाई